फोर्टिस के डॉक्टरों ने 3डी प्रिंटिंग तकनीक से पहली सर्जरी की

 


फोर्टिस के डॉक्टरों ने अपनी किस्म पहली सर्जरी की है, जिसमें 3डी प्रिंटिंग तकनीक का सहारा लिया गया। इस तकनीक में टिटेनियम जबड़े को तैयार किया गया था और इसे फरीदाबाद के एक 30 वर्षीय पुरुष को लगाया गया। इस नए जबड़े की मदद से अब उसका अपने मुंह पर पूरा नियंत्रण वापस आ गया है और सात साल में यह पहला मौका है, जबकि वह अपना भोजन सही तरीके से चबाकर खाने में समर्थ हुआ है। कैंसर ग्रस्त होने की वजह से डॉक्टरों को पूर्व में इस व्यक्ति का जबड़ा निकालना पड़ा था। इस प्रक्रिया को फोर्टिस फ्लाइट लेफ्टिनेंट राजन ढल अस्पहताल वसंत कुंज के डॉ मंदीप सिंह मलहोत्रा, हैड ऑफ डिपार्टमेंट, हैड, नैक एंड ब्रैस्टा ओंकोलॉजी तथा उनकी टीम ने अंजाम दिया।


मरीज प्रभजीत सात साल पहले कैंसर की वजह से अपने जबड़े की हड्डी के दायें आधे भाग को गंवा चुका था । कैंसर के इलाज के लिए उसे डॉक्टरों को उसके टैंपोरोमैंडीब्यू्लर (टीएम) ज्वा्इंट के साथ ही इसे भी हटाना पड़ा था। टीएम ज्वाइंट ही जबड़े की मोबिलिटी को नियंत्रित करता है। बाकी बचे रह गए मैंडिबल के सरकने की वजह से जबड़े के निचले और ऊपरी भाग आपस में जुड़ नहीं पा रहे थे, इससे खाना चबाने में असमर्थ था और सिर्फ दलिया या खिचड़ी जैसा भोजन ही खा सकता था। इसकी वजह से उसके गाल में बार-बार बाइट अल्सर भी रहने लगा था जो दर्द का कारण तो था ही, साथ ही कैंसर के दोबारा पनपने की आशंका भी बढ़ गई थी। मरीज़ को एसएलई (सिस्टेमेटिक ल्युपस एरिथेमेटॉसिस) के रूप में क्रोनिक रोग भी था।



डॉ. मंदीप एस मलहोत्रा ने कहा कि एसएलई रोग और टीएम ज्वावइंट के रीकंस्ट्रकक्शन के चलते हम इस मामले में पारंपरिक प्रक्रिया नहीं अपनाना चाहते थे, जिसमें जबड़े की हड्डी रीकंस्ट्रजक्ट करने के लिए पैर के निचले भाग से फिब्युला का इस्ते्माल किया जाता है। एसएलई के चलते फिब्युला हड्डी तक रक्तप्रवाह नहीं हो पा रहा था और साथ ही इस प्रक्रिया में पैर की एक हड्डी भी गंवानी पड़ सकती थी, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती थी। टीएम ज्वाहइंट रीकंस्ट्रमक्शान सिर्फ प्रोस्थेटिक ज्वाइंट तैयार कर उसे उपयुक्त स्थान पर लगाना ही संभव था। 3डी प्रिंटिंग तकनीक की मदद से प्रोस्थेटिक जॉ तैयार करने पर विचार किया, जिसके लिए टिटेनियम का इस्तेमाल किया गया जो कि सर्वाधिक बायोकॉम्पेटिबल और लाइट मैटल है। प्रोस्थेटिक जॉ बोन के ऊपरी हिस्से के इर्द-गिर्द आवरण की तरह जो हिस्सा है, जिसे कॉन्डाइल कहा जाता है, का निर्माण अल्ट्रा हाइ मॉलीक्यूहलर वेट पॉलीथिलिन से किया गया।


मरीज के चेहरे का एक सीटी स्कैन कराया गया, जिसके लिए सीटी-डेटा मॉडलों की मदद ली गई। बचे हुए बाएं मैंडिबल का इस्तेामाल कर उसकी मिरर इमेज की मदद से एक स्कल मॉडल बनाया गया, जिसमें पूरा मैंडिबल भी थ। प्रोस्थे्टिक स्कल मॉडल का विस्तृत अध्ययन किया गया, जिससे सुनिश्चित किया जा सके कि ऊपरी और निचला जबड़ा पूरी तरह से अपने स्थान पर रहे। वास्तविक इंप्लांट का एक प्रोस्थेकटिक मॉडल भी विकसित किया गया,जिससे हम कार्यप्रणाली और एस्थेटिक्स जैसे पक्षों का अध्ययन कर सके। हमने स्क्ल मॉडलों पर इंप्लांट तथा नए टीएम ज्वाइंट दोनों ही लगाने की योजना तैयार की। यह प्रक्रिया 9 महीने से अधिक अवधि तक जारी थी। प्रोस्थेाटिक मैंडिबल के मॉडलों को कई बार बदला भी गया। कई बार जांच और परीक्षणों के बाद 3डी तकनीक की मदद से इंप्लांट को वास्तविक बायोकॉम्पेटिबल टिटेनियम में बदलने में सफल रहे ।


डॉ मलहोत्रा ने बताया कि हम अपनी योजनाओं पर काम कर रहे थे और साथ ही मरीज़ को स्पिलंट्स दिए गए तथा उन्हेंम इंटेंसिव फिजियोथेरेपी भी करवाई गई। प्रोस्थे’टिक मैंडिबल के लिए ट्रायल मॉडलों को, जैसे-जैसे जॉ की एलाइनमेंट होती रही, अलग-अलग समय पर संशोधित किया जाता रहा। यह प्रक्रिया पूरे 9 महीनों तक चली।  रेडिएशन थेरेपी और सर्जरी की वजह सेजो फ्राइब्रोसिस पैदा हो गया था, सर्जरी के दौरान उसे क्लीनिकली डाइसेक्टड करना काफी मुश्किल था। बड़ी समस्या यह थी कि चेहरे के स्नायु के क्षतिग्रस्त होने की आशंका थी जो कि चेहरे की मांसपेशियों में गति और हाव-भाव के लिए जिम्मेदार होती है। इस स्नायु को सावधानीपूर्वक अलग हटाया गया और ज्वाइंट को सही स्थान पर स्थापित किया गया।


प्रोस्थेसटिक टिटेनियम जॉ को सफलतापूर्वक लगाया गया। नए टीएम ज्वाइंट का निर्माण हुआ और निचले जबड़े में गतिशीलता की संपूर्ण जांच-पड़ताल की गई। यह सर्जरी करीब 8 घंटे तक चली और इसके लिए काफी कड़े प्रयासों को अंजाम दिया गया, जिसमें प्रत्येक स्नायु शाखा की पहचान और हर स्क्रू को पूर्व-नियोजित जगह पर लगाना शामिल था